माटी की तकदीर लायी हुं लिखाके..
कभी आये बरखा तो...निखर जाती हुं...
सुखा पडे तो...कांटा बन जाती हुं...
ये क्या किस्मत पायी है...
सदा निर्भर क्यों है ये...
क्यों नही...उडती ये..हवाओंमें..
क्यों नही..छाजाती घटा बनके..
सूरज की किरणें बन कर ...
क्यों नही घुम आती यें..
फ़ुलों की महक बन..
क्यो नही..महकाती यें..
क्यो है इसे दर्द इतना
अपनी ही छंदो पर..
क्यों है यह बेबस...महकने को...
बारिश के चंद बुंदो पर..
?
२२.७.२०१२
Awesome Di....!!
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