रात के अंधेरे में...
जो कलियां भर ली थी हाथों में
लगा था बन जायेगी...फ़ूल...
रातें गुजर गयी..
अब तो ना कलियां है..ना फ़ूल..
हाथों की..रेखा को कुरेदके...
कौनसी कलियां..कौनसे फ़ूल
चुनू मै अब..
रेत की ठेर मैं से...
कहां ढुंढू मै अपनी..उस..
बगिया को..जहां कभी...
गुलशन ए बहार थी....
?
२२.७.२०१२
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